Sunday, November 4, 2012

Hindi Sermon 31 Sunday of the Ordinary Time Year B



वर्ष का इकत्तीसवा इतवार (समान्य काल, चक्र बी)
(Duet 6:2-6. Heb. 7:23-28. Mk 12:28-34)
ख्रीस्त में प्यारे भाइयो और बहनों,
      संसार की सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर न केवल हम मनुष्यों के साथ बल्कि सारी सृष्टि के साथ एक अटूट सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है; एक प्रेम भरा सम्बन्ध बनाये रखना चाहता है, और ज़ाहिर है वह सब कुछ का सृष्टिकर्ता है, तो अपनी ही सृष्टि से उसका सम्बन्ध क्यों नहीं होगा? उसने मनुष्य को पूरी आज़ादी दी है, लेकिन कभी-कभी मनुष्य उस आज़ादी का दुरूपयोग कर, ईश्वर से दूर चला जाता है, और ईश्वर नहीं चाहता कि उसकी सर्वश्रेष्ठ रचना जिसे उसने अपने ही प्रतिरूप में बनाया है, उससे विमुख होकर नष्ट हो जाये. ईश्वर और मनुष्यों का यह प्रेम भरा मधुर सम्बन्ध सदा बना रहे इसलिए ईश्वर ने हमें कुछ नियम व आज्ञाएं दी हैं जिनका पालन मनुष्य को करना चाहिए. इन आज्ञाओं के बारे में हम निर्गमन ग्रन्थ के बीसवें अध्याय और विधि-विवरण ग्रन्थ के पांचवें अध्याय में विस्तारपूर्वक पढ़ते हैं. ईश्वर की यही दस आज्ञाएं मानव के मुक्ति इतिहास में सबसे बड़ी देन हैं और आज के पहले पाठ के अन्त में हमने सुना कि ईश्वर चाहता है कि हम ईश्वर के इन शब्दों को अपने हृदय पर अंकित कर लें.
पुराने व्यवस्थान में सिनाई पर्वत पर ईश्वर ने नबी मूसा द्वारा इस्राएलियों को दस आज्ञाएं दीं लेकिन नये व्यवस्थान में प्रभु येसु ने उन्हीं दस आज्ञाओं को सिर्फ दो आज्ञाओं में समाहित कर दिया और वे दो आज्ञाएं प्रभु येसु खुद आज के सुसमाचार में हमें समझाते हैं. पहली आज्ञा है- हमारा प्रभु ईश्वर एकमात्र प्रभु है, अपने प्रभु ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, अपने सारे मन और सारी शक्ति से प्यार करो. और दूसरी आज्ञा है- अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो. सुसमाचार में हमने सुना कि शास्त्री तो प्रभु येसु से केवल पहली आज्ञा के बारे में पूछता है लेकिन प्रभु येसु उसे न केवल पहली आज्ञा बताते हैं बल्कि दूसरी महत्वपूर्ण आज्ञा भी बताते हैं, अपने पड़ौसी को अपने समान प्रेम करने की आज्ञा. यानि कि दूसरी आज्ञा का पालन किये बिना पहली आज्ञा अधूरी है. यही दो आज्ञाएं हमारे धर्म और धार्मिकता का आधार हैं. दरसल इन दो आज्ञाओं में तीन महत्वपूर्ण बिंदु छिपे हुए हैं और इन तीनों ही बिंदुओं का संक्षिप्त सार केवल ढाई अक्षर का और वो है – प्रेम. ईश्वर के प्रति प्रेम, अपने पड़ौसी के प्रति प्रेम और अपने स्वयं के प्रति प्रेम. ये तीनों ही बिंदु एक दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं.
अब कोई पूछ सकता है कि हमें क्यों ईश्वर को प्यार करना चाहिए, हम कमजोर पापी मनुष्यों के प्रेम की ईश्वर को क्या ज़रूरत? ईश्वर को हमारे प्रेम की ज़रूरत नहीं लेकिन ईश्वर को प्रेम करना हमारी ज़रूरत है. पहले ईश्वर ने हमें प्यार किया, और अपने प्रेम के द्वारा ही हमारी सृष्टि की है, हमें अपने ही प्रतिरूप में बनाया है, और इतना ही नहीं जब हम स्वार्थी होकर पाप के द्वारा ईश्वर से अलग हो जाते हैं तब भी ईश्वर हमें ऐसे ही नहीं छोड़ता. हमें पापों से बचाकर अपने से मेल कराने के लिये उसने प्रारम्भ से ही अनेक नबियों और सन्देश वाहकों को भेजा. उतना ही नहीं अन्त में उसने अपने एकलौते पुत्र को हमारे लिये क्रूस पर अर्पित कर दिया. रोमियों के नाम अपने पत्र के अध्याय पाँच पद संख्या आठ में संत पौलुस हमसे कहते हैं, “किन्तु हम पापी ही थे, जब मसीह हमारे लिये मर गये थे. इससे ईश्वर ने हमारे प्रति अपने प्रेम का प्रमाण दिया है.” जी हाँ प्यारे भाइयो और बहनों हम पापियों के प्रति ईश्वर के प्रेम का सबसे बड़ा प्रमाण! ईश्वर के इस असीम प्रेम के बदले हमें क्या करना चाहिए? कैसे हमें उनके इस प्रेम का बदला चुकाना चाहिए? ईश्वर ने हमारे लिये इतना सब कुछ किया तो अब ईश्वर के प्रति हमारी क्या ज़िम्मेदारी बनती है? इन्हीं तमाम सवालों का जवाब है ईश्वर की पहली आज्ञा – ईश्वर को अपने सारे हृदय, अपनी सारी शक्ति और मन से प्यार करो, यानि कि ईश्वर से बढ़कर हमारे जीवन में कोई नहीं होना चाहिए, सबसे पहले ईश्वर उसके बाद ही बाकी सब.
लेकिन ईश्वर को तो किसी ने देखा ही नहीं, प्रभु येसु खुद (योहन ६:४६ में) कहते हैं – “यह न समझो कि किसी ने पिता को देखा है; जो ईश्वर की ओर से आया है उसी ने पिता को देखा है.” अगर किसी ने ईश्वर को देखा ही नहीं तो हम उसे प्यार कैसे कर सकते हैं? इसी को समझाने के लिये प्रभु येसु हमें दूसरी आज्ञा देते हैं – अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करो, यानि कि अगर हम अपने पड़ौसी को अपने समान प्यार करेंगे तभी हम ईश्वर को भी प्यार कर पाएंगे. ईश्वर सभी मनुष्यों में निवास करता है और जब हम दूसरों को प्यार करते हैं तो हम ईश्वर को प्यार करते हैं क्योंकि संत मत्ती के सुसमाचार के पच्चीसवे अध्याय के ४० पद में प्रभु येसु हमसे कहते हैं –“तुमने मेरे इन भाईयों में से किसी एक के लिये, चाहे वह कितना ही छोटा क्यों न हो, जो कुछ किया, वह तुमने मेरे लिये ही किया.” संत योहन भी हमें अपने पहले पत्र में याद दिलाते हैं, (४:२०) “यदि कोई यह कहता है कि मैं ईश्वर को प्यार करता हूँ और वह अपने भाई से बैर करता है, तो वह झूठा है. यदि वह अपने भाई को, जिसे वह देखता है, प्यार नहीं करता, तो वह ईश्वर को, जिसे उसने कभी नहीं देखा, प्यार नहीं कर सकता.” ईश्वर को हम तभी प्यार कर सकते हैं जब हम दूसरों को प्यार करें. और दूसरों को प्यार करने से पहले हम खुद को प्यार करें क्योंकि हमें अपने समान ही दूसरों को प्यार करना है और अगर हम खुद को ही प्यार नहीं करते तो दूसरों को भी प्यार नहीं कर पाएंगे. सब कुछ प्रेम पर टिका हुआ है, ईश्वर के प्रति प्रेम, अपने पड़ौसी के प्रति प्रेम और अपने प्रति प्रेम. यदि हम ईश्वर को, अपने पड़ौसी को और स्वयं को प्यार करते हैं तो हमें किसी और बलिदान या साधना की ज़रूरत नहीं है.
आईये हम ईश्वर से कृपा माँगें कि हम, अपने उस सृष्टिकर्ता को अपने सारे हृदय, अपनी सारी आत्मा, सारे मन और सारी शक्ति से प्यार करें और अपने पड़ौसी अर्थात सभी ज़रूरतमंद लोगों को अपने समान ही प्यार करें. इसके लिये ईश्वर हमें शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करे.