Sunday, September 16, 2012

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Thursday, September 6, 2012

Psalm One


धन्य है वह मनुष्य,
जो दुष्टों की सलाह नहीं मानता,
पापियों के मार्ग पर नहीं चलता
और अधर्मियों के साथ नहीं बैठता,
जो प्रभु का नियम ह्रदय से चाहता
और दिन-रात उसका मनन करता है !
वह उस वृक्ष के सदृश है,
जो जलस्रोत के पास लगाया गया,
जो समय पर फल देता है,
जिसके पत्ते कभी मुरझाते नहीं.
वह मनुष्य जो भी करता है, सफल होता है.
दुष्ट जान ऐसे नहीं होते, नहीं होते;
वे पवन द्वारा छितरायी भूसी के सदृश हैं.
न्याय के दिन दुष्ट नहीं टिकेंगे,
पापियों को धर्मियों की सभा में
स्थान नहीं मिलेगा ;
क्योंकि प्रभु धर्मियों के मार्ग की रक्षा करता है,
किन्तु दुष्टों का मार्ग
विनाश की ओर ले जाता है.

Monday, September 3, 2012

क्या ईसाई जबरन धर्मपरिवर्तन कराते हैं?


कई बार ख़बरें आती हैं कि ईसाईयों ने किसी व्यक्ति का या व्यक्तियों के एक समूह का जबरन या लालच देकर धर्मपरिवर्तन करवा दिया. उतना ही नहीं इसी बात पर कई बार ईसाईयों पर अनेक अत्याचार भी किये जाते हैं, उन्हें तरह-तरह से सताया जाता है तथा उन्हें अंग्रेजों का वंशज कहकर बुलाया जाता है. ईसाई जबरन या लालच देकर या डराकर धर्मं परिवर्तन कराते हैं, इस कथन में कितनी सच्चाई है, इस बात को ऐसा दोषारोपण करने वालों से अधिक अच्छी तरह से खुद ईसाई जानते हैं. सच तो ये है कि यह कथन और इस तरह के आरोप निराधार और झूठे हैं, बेबुनियाद हैं. जो लोग ईसाइयों पर ऐसे दोष लगाते हैं, वे न तो इस बात के लिये कोई पुख्ता सबूत दे सकते हैं, और न ही कोई आधार. इसके विपरीत ईसाई खुद उनके निर्दोष होने का सबूत दे सकते हैं, और इस बात का भी सबूत दे सकते हैं कि उन्हें ऐसे दोष लगाकर बेवजह ही प्रताडित किया जा रहा है, लेकिन सामान्य तौर पर ईसाइयों की बात कोई नहीं सुनता और इसके लिये उन्हें भुगतना पड़ता है.
सबसे पहले तो एक बात स्पष्ट करनी होगी की अलग-अलग राज्यों में जबरन धर्मपरिवर्तन या लालच देकर, डरा-धमकाकर धर्मपरिवर्तन कराना भारतीय दंड संहिता के अंतर्गत दंडनीय अपराध है. भारत के कई राज्यों में धर्मपरिवर्तन निषेध अधिनियम जो ‘धार्मिक स्वातंत्र्य अधिनियम’ नाम से बनाया गया है. ऐसे अधिनियम निम्लिखित राज्यों में भी हैं: ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, अरुणाचल प्रदेश, गुजरात, हिमाचल प्रदेश आदि. अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग सजा तथा अर्थदंड का प्रावधान है. उदहारण के लिये गुजरात में धर्मपरिवर्तन के दोषी को ‘गुजरात धर्मस्वातंत्र्य अधिनियम 2003’ की धारा 3 कस अंतर्गत जबरन या लालच देकर, या बहकाकर, डराकर धर्मपरिवर्तन के दोषी व्यक्ति को अधिक से अधिक तीन साल का कारावास तथा पचास हज़ार रूपये जुर्माना हो सकता है. यदि किसी अवयस्क, या अनुसूचित जाति का व्यक्ति या अनुसूचित जान-जाति का व्यक्ति है तो यह सजा बढ़कर चार साल तथा रूपये एक लाख तक जुर्माना हो सकता है. उसी तरह ‘मध्य प्रदेश धार्मिक स्वातंत्र्य अधिनियम 1968 की धारा चार के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति को एक साल तक की सजा अथवा पाँच हजार रूपये का जुर्माना या दोनों ही हो सकते हैं. इस प्रकार कोई भी जान-बूझकर इस कानून का उलंघन नहीं करेगा.
उसके आलावा कोई कहता है कि ईसाई जबरन या लालच देकर धर्मपरिवर्तन करवाते हैं तो वे गलत हैं क्योंकि जब तक कोई अपनी अंतरात्मा से किसी धर्म को न माने तो वह उस धर्म का सच्चा अनुयायी नहीं हो सकता. जबरन या लालच देकर धर्मपरिवर्तन कारवाना ईसाई धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है. ईसा मसीह ने मानवजाति के लिये प्रेम का पाठ पढाया है डराने-धमकाने का नहीं. यदि कोई ईसाई धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध किसी का धर्मपरिवर्तन करवाता है तो न केवल ऐसा करने वाला व्यक्ति बल्कि जिसका धर्मपरिवर्तन करवाया गया है वह व्यक्ति दोनों ही ईश्वर के प्रेम से वंचित हो जायेंगे. क्योंकि बाइबिल में लिखा है कि जो व्यक्ति किसी अनजान (अज्ञानी) व्याक्ति को गलत मार्ग पर ले जाता है तो उन दोनों का ही सर्वनाश हो जायेगा.
कोई पूछेगा कि ईसाई गरीबों और दलितों, तथा निचले वर्ग के प्रति इतने उदार क्यों होते हैं. उनके बीच निस्वार्थ भाव से काम करने का मकसद उनका धर्मपरिवर्तन करना ही तो है? जी नहीं, ईसाईयों के लिये न तो कोई छोटा है, न कोई दलित या ब्राह्मण है, उसके लिये सभी मनुष्य ईश्वर की संतान हैं और सभी ईश्वर के प्रेम के हक़दार हैं. सभी मनुष्यों को बराबर समझते हुए उन्हें समाज में उचित आदर-सम्मान दिलाना, सभी को समान अधिकार दिलाना ही ईसाई धर्म का मकसद है. ईश्वर के उसी प्रेम को जिसकी खातिर प्रभु ईसा मसीह ने स्वयं को क्रूस पर बलिदान कर दिया, उसी प्रेम को जन-जन तक पहुँचना प्रत्येक ईसाई के जीवन का उद्देश्य होना चाहिए. देश और समाज के प्रति हमारी सेवा को यदि कोई गलत समझता है तो ईश्वर ही इसका न्याय करेगा. ईश्वर की आशीष सभी पर !!! (If you think some corections are needed in this write up, please contact the author at: johnsongwlr@catholic.org).